क्या बहू और बेटी के रिश्ते की तुलना करना सही है?… 😕 🙄

सास-बहू का रिश्ता सबसे खासमखास रिश्ता माना जाता है क्योंकि जमाना बदल गया,लोग मॉर्डन हो गए  लेकिन सास-बहू की खिटपिट ,प्यार और खींचतान अब भी वही है…हाँ वो अलग बात है कि सास बहू के रहन-सहन में थोड़ा सा फर्क आया है…पर उम्मीदें अब भी वही हैं।

सोंचिये ना….

गली-मोहल्ले की चौपाल हो चाहे आस-पड़ोस की बातें.. एक आम चर्चा हर जगह होती ही है…वो है सास,बहू और बेटी,

सबकी अपनी-अपनी बातें होती हैं ,अपने-अपने किस्से ,सुख-दुख होते हैं…सब तरह की बातों के बाद
लगभग हर बात ख़त्म एक ही लाइन पर होती है कि
अब जमाना बदल गया है ,अब तो बहू को बेटी समझना चाहिये।

आज भी इसी तरह की एक चर्चा पड़ोस में हो रही थी…और फिर से किसी ने यही लाइन बोली…कि अरे बहन जी! अब जमाना बदल गया है ,अब तो बहू को बेटी समझना चाहिये।

पता नहीं क्यों…मैं जैसे इस बात से सहमत नहीं हुई…कई बार सोंचा कि कहूँ कि ….मैं नहीं मानती…. फिर लगा बिना समझे ही अभी मुझपर पुराने जमाने की क्रूर,अनपढ़ महिला होने का इल्जाम  लग जायेगा …मैं उस बात पर बिना कुछ विचार व्यक्त किये वापस लौट आयी..पर रहा ना गया तो..सोंचा आप लोगों से अपनी राय साझा करूँ।

लोग कहते हैं कि बहू को बेटी समझना चाहिये… मैं कहती हूँ कि क्यों? …..क्यों हम बहू की तुलना बेटी से करें …क्या एक बहू के पद का कोई अस्तित्व नहीं?कोई सम्मान नहीं? दो अलग रिश्तों को एक पैमाने पर कैसे परखा जा सकता है? क्या बहू….बहू बन कर ही परिवार का गौरव नहीं बन सकती?

क्या बहू को बहू मानकर उसे वो सम्मान नहीं मिलेगा जिसकी वो हकदार है?

मैं बेटी और बहू  दोनो ही रिश्तों से जुड़ी हुई हूँ… दोनो को जी कर मैने समझा है कि इन दो रिश्तों की तुलना  करके लोग बहू के पद को तुच्छ  कर देते हैं…इन दो रिश्तों की तुलना रिश्तों में खटास  का कारण बनती है क्योंकि बहू को बेटी मान कर हम उससे बेटी सी अपेक्षा करते हैं और वो हमसे बेटी के साथ किये जाने वाले व्यवहार की।

मैं बहू के रिश्ते के खिलाफ बिल्कुल नहीं हूँ ना ही पुराने विचारों से बंधीं हूँ पर जरा गौर कीजिये कि

किसी की बेटी अपना घर छोड़ कर किसी और घर की बहू बनती है,बेटी की रूप में उसने अपने बचपन को जिया होता है जिम्मेदारी शब्द उसके लिए बहुत सीमित होता है

पर बहू बनने के बाद उस पर ज़िम्मेदारी आ जाती है अपने घर को सँवारने की,रिश्तों को सहेजने  की,घर को लेकर चलने की । ऐसे में उसे बेटी के पद से मापना  उसके ही सम्मान को ठेस  पहुँचाने जैसा नहीं है क्या?

मैं नहीं कहती कि बहू को बेटी सी आज़ादी  ना हो…वो आज़ाद हो बेटी की तरह…पर वो इतनी समझदार तो हो कि वो अपने पति के घर के प्रति अपनी जिम्मेदारियां बखूबी निभा सके,जो ये समझ सके कि ये उसका ही फ़र्ज़ है, वो रिश्तों को बोझ सा ना समझे

“बेटियाँ पराया धन होती हैं” लोग कहते हैं.. और…कहीं ना कहीं इसी सोंच से उनका पालन पोषण होता है इसलिये माएँ ढेर भर दुलार करती हैं उनसे,वो उनकी हर इच्छा पूरी करती हैं, उनको पलकों पर बिठा के रखती हैं,संस्कारवान बनाती हैं, बस इतनी ही उम्मीद करती हैं कि वो उनके संस्कारों को आगे ले जाये,अपने जीवन में सफल हो और एक अच्छी ज़िम्मेदार बहू भी बने… मायके वाले चंद दिन के लिये मायके आने पर बेटियों को ज़िम्मेदारी के बोझ से नहीं बाँध सकते,

पर बहू तो किसी घर की लक्ष्मी होती है, उस घर की पालक होती है…उसके कर्तव्य होते हैं जो ब्याह के फेरों के संग उसके साथ आते हैं..
फिर बेटी सा होने की उम्मीद देकर भी लोग उसे धोखे में क्यों रखते हैं… एक बहू बेटी सी आज़ाद ख्याल हो सकती है…विचारवान हो सकती है पर उसकी जिम्मेदारी एक बहू के रूप में अलग होती है बेटियों से।

और इससे इतर एक सवाल ये भी है कि कितने लोग हैं जो बहू को बेटी मान पाते हैं?

कहने और सुनने में ये लाइन भले ही नए जमाने की नई सोंच  दिखाती हो पर क्या असल में लोग ऐसा कर पाते हैं?

खुद से सवाल करें या औरों से…मन में सबका

जवाब यही मिलेगा ..कि नहीं…क्योंकि बहू से की हुई अपेक्षाएँ बेटी से की ही नहीं जा सकती, प्यार आड़े आ जाता है और ममता भी।सास चाह कर भी माँ सा हक रख नहीं सकती ना ही जता सकती है क्योंकि एक बेटी पहले ही वो हक अपनी माँ को दे चुकी है

बड़ी साधारण बात है माँ की कही जो बात उसकी बेटी को नहीं चुभती पर उसी बेटी को उसकी सास की कही हुई वही बात चुभ जाती है
तो बहू कहाँ से बेटी हुई और सास कहाँ से माँ?

कहने का मतलब बस इतना है कि ….बहू को बेटी समझने का कथन भी तभी सार्थक होता है जब ये दोनो ओर से निभाया जाए, लेकिन ऐसा नहीं होता
यदि कोई सास बहू को बेटी मान भी ले…. तो भी… बहू उसके इस अपनत्व को नहीं समझती और कई बार बेटी जैसी हूँ कि सोंच लेकर आई बहू सास को माँ तो मान लेती है पर सास उसे बेटी नहीं मान पाती।

अपेक्षाओं से बँधे इन दोनो रिश्तों में समानता हो ही नहीं पाती।

ऐसे में ये तुलना कर के हम जाने-अनजाने बहू पर बेटी सा बनने का परोक्ष दबाव डाल देते हैं

देखा जाए तो हम समानता के नाम पर बहू और बेटी दोनो से धोखा कर बैठते हैं।
बेटी से तुलना कर के हम बेटी से भी उसके पद को कहीं ना कहीं छीन लेते हैं…और कभी-कभी बेटियों से भी संबंध बिगड़ जाते हैं।

इस तरह हम दो रिश्तों को जीवन भर के लिये बराबरी की होड़ दे जाते हैं

माँ के लिये बेटी का रिश्ता उसका पुनर्जन्म होता है,वात्सल्य से भरा हुआ होता है..

माँ बेटी को सीख रूपी पंख देकर उसको ससुराल विदा कर देती है।
जबकि
सास के लिये बहू का रिश्ता प्यार और ज़िम्मेदारी से भरा होता है जीवन भर के लिये ।

मुझे लगता है बहू और बेटी के रिश्ते की तुलना करना बेईमानी है…दोनो ही पदों का महत्व और प्रगाढ़ता इससे कम होती है

ब्याह के बाद स्त्री… बहू बन कर किसी और के घर को रोशन करती है पूरी जिम्मेदारी उठाते हुए औऱ उसका ये हक़ उसे बहू बन कर ही मिल सकता है…बेटी से तुलना कर या बेटी सा कहलाकर नहीं।

बेटी तो वो है ही अपने घर के आंगन की पर दूसरे के आँगन को रोशन करने के लिये ही तो वो बहू का पद लेकर आई है।

इसलिये बहू को बहू समझकर प्यार और सम्मान दें…बेटी से तुलना कर के उसके सम्मान को ठेस ना पहुँचायें ,ना ही उसे भ्रम में डालें और ना ही बेटी सा बनने का बोझ और प्रतिस्पर्धा देकर बहू के फ़र्ज़ निभाने के रास्तों को मुश्किल बनाएं क्योंकि जितना महत्व आपके सास पद का है उतना ही महत्व एक बहू के पद का भी होना चाहिये क्योंकि ये दोनों पद एक दूसरे के पूरक हैं।

अनुलेख: मैं जानती हूँ कि कई लोगों को असहमति हो सकती है पर मैने निष्पक्षता के साथ जो मुझे उचित लगा आपके संग साझा किया…इसे मानने की कोई बाध्यता नहीं है

#सास-बहू #रिश्तों की पहेली #लेखनी

हाँ, मैं वही हूँ

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Author

गरिमा शुक्ला "लेखनी" इसकी सक्रिय लेखिका होने के साथ इसका Talent management भी manage करती हैं। पेशे से Engineer, गरिमा की साहित्य में काफी रुचि है,कला क्षेत्र से उनका जुड़ाव उन्हें लेखन की ओर ले गया और उन्होंने ब्लॉग के रूप में अपने भावों को प्रस्तुत करने तथा इसमें और लोगों को भी जोड़ने का प्रयास किया|

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